असंचारी रोगों की रोकथाम तो स्‍कूली स्‍तर पर ही करनी होगी सरकार को

असंचारी रोगों की रोकथाम तो स्‍कूली स्‍तर पर ही करनी होगी सरकार को

नरजिस हुसैन

जैसे-जैसे सब देशों को नॉन कम्युनिकेबल डिजीज (NCD) के बढ़ते खतरों के बारे में जानकारी होती जा रही है वैसे-वैसे सरकारों, गैर-सरकारी संगठन और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के ऊपर इस दिशा में नीतियां तय करने का दबाव बढ़ता जा रहा है। लेकिन इस बार NCD की रोकथाम के लिए नीतियां बच्चों, युवाओं और महिलाओं को खास ध्यान में रखकर बनाई जाने की जरूरत समझी जा रही है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि युवावस्था में होने वाली ज्यादातर मौतों की जिम्मेदारी बचपन में खानपान की गलत आदते, तंबाकू सेवन और कसरत या वर्जिश की कमी है। यही वजह है कि आजकल युवाओं और बच्चों में ब्लड प्रेशर, मोटापा, थायराइड, सर्वाइकिल और डाइबिटीज जैसी कई और बीमारियां उम्र से पहले ही होने लगी हैं। कम उम्र में ही इनका इलाज शुरू हो जाता है और 40 के पार रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने के साथ शरीर जल्दी ही और बीमारियों की चपेट में आने लगता है।

लेकिन इन बीमारियों को बचपन से ही खाने-पीने की सही आदतों के जरिए रोका जा सकता है। भारत सरकार ने ऐसी ही पहल मिड डे मील से शुरू की। इसमें स्कूल में चुनिंदा अध्यापक बच्चों के लिए ताजा और पौष्टिक खाना तैयार करते हैं और बच्चों को लंच में परोसते हैं। तो इस तरह इस पहल ने बच्चों में ज्यादा-से-ज्यादा घर का पका खाना खाने की आदत को बढ़ावा दिया। इससे बच्चों में भरपूर पोषण भी जाता है और बाजार भी उन पर हावी नहीं हो पाता।

लेकिन, अफसोस आज हालत यह है कि शहर के लगभग सभी प्राइवेट स्कूलों में कैंटीन मौजूद है। हां ये जरूरी नहीं कि बच्चा रोज वहां खाए लेकिन, कैंटीन की मौजूदगी बच्चों की चाह और मां-बाप के आलस पर अक्सर भारी पड़ती है। और अब तो बच्चों के खान-पान का बाकायदा एक पूरा बाजार है। इस बाजार को यह पता है कि किस तरह अपने पैकेज्ड और डिब्बा बंद फूड को बच्चों और युवाओं में लोकप्रिय बनाना है। हमें सीखना चाहिए मलेशिया से जहां स्कूलों में हर महीने अध्यापक मां-बाप से पैसे इकट्ठा कर (सेल्फ फंडिंग) स्कूल में खाना पकाते हैं और बच्चों को खिलाते हैं। वहां सरकारी खर्च वाली मिड डे मील की सुविधा भी नहीं है। तो इस तरह हमें सबसे पहले बच्चों और फिर युवाओं की खान-पान की आदतों को दुरुस्त करना होगा। कैंटीन की जगह अगर खुले और बड़े खेल के मैदान हो तो बच्चों के लिए और भी बेहतर होगा।

अब ये भी एक बड़ा मुद्दा है कि बार-बार बच्चों को कहा जाए कि पौष्टिक खाना खाओ और स्कूल के आस-पास वैसा माहौल ही न हो। देश के सभी बड़े शहरों के प्राइवेट स्कूलों में कैंटीन का रिवाज है जोकि आज से कुछ साल पहले तक नहीं हुआ करता था। यहां जो खाना बच्चों को परोसा जाता है वह भारतीय कम और फास्ट फूड, कोल्ड ड्रिंक्स ज्यादा होते हैं। इसके अलावा तकरीबन हर स्कूल प्राइवेट औऱ सरकारी सबके बाहर या आस-पास फास्ट फूड आउटलेट, आइसक्रीम वाले और चिप्स, कुरकुरे, बिस्किट, नमकीन, ट़़ॉफीज बेचने वाले खूब खड़े रहते हैं जिन पर स्कूल खत्म होते ही बच्चे टूट पड़ते हैं। अब नॉन कम्युनिकेबल डिजीज की रोकथाम के लिए नीति तो यही बननी चाहिए कि कैंटीन न स्कूल में हो और न ही इस तरह के आउटलेट उसके बाहर या आस-पास हों।

नॉन कम्युनिकेबल डिजीज के फैलाव के कारणों को शुरूआत में ही रोक देने से बाद में आने वाली परेशानियों से बचा जा सकता है। इसके लिए स्कूल की कैंटीन और आस-पास फास्ट फूड ज्वाइंटस का न होना ही काफी नहीं बल्कि जंक फूड्स के विज्ञापन के प्रचार और प्रसार को भी नियमित करना जरूरी है। भारत में बच्चों और युवाओं के फास्ट फूड का एक पूरा बाजार है। Target Marketing to Children – The Ethical Aspect’ (https://pdfs.semanticscholar.org/02f6/c245ebf0dca57b5fd3af72469b2faba8f4cc.pdf) नाम के पेपर के मुताबिक देश में फास्ट फूड चेन्स इस तरह के खाने के प्रचार पर 3 खरब डॉलर हर साल खर्च करती है। अलग-अलग कंपनियां बच्चों और युवाओं को लुभाने के लिए कम कीमच या डिस्काउंट या फ्री गिफ्ट वगैरह की नीति अपनाकर हर तरह से उन्हें अपना ग्राहक बनाने की कोशिश करते हैं।

हालांकि, युरोप में इन खतरों को भापंते हुए वहां की सरकारों ने इन तरह के लुभावने विज्ञापनों के प्रचार पर काफी हद तक रोक लगा दी है लेकिन भारत में इस दिशा में सरकार ने कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। मां-बाप के लाख कैंपेन चलाने के बाद भी विज्ञापन कंपनियां बच्चों और युवाओं को ही विज्ञापनों में लेने लगी ताकि इस उम्र के ज्यादा-से-ज्यादा बच्चे और युवा विज्ञापन में दिखाई जाने वाली चीजों का इस्तेमाल करें।  

इस तरह अब ये लड़ाई विज्ञापन कंपनियों और परिवारों के बीच फंसकर रह गई है। पैकेट पर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक या कैफीन या इसी तरह की अन्य जानकारी के बावजूद बच्चे और युवा बेपरवाह होकर इनका सेवन करते हैं। 2014 में न्यूजीलैंड ने सबसे पहले लेबलिंग व्यवस्था शुरू की जिसे वहां की सरकार ने हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम का नाम दिया। इसके तहत पैकेट में बंद खाने के सामान के बारे में और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर को लेकर सरकार की एजेंसियां रेटिंग करती है और उसे हानिकारक या लाभदायक का दर्जा देती हैं। इसी तरह 201 में फ्रांस ने करल कोडिंग के माध्यम से ए-ई का पैमाना तय किया। 2016 में चिली में ऐसा ही कदम उठाया गया। और इसका नतीजा यह निकला की एक तय पैमाने से निचले स्तर का सामान मार्केट में आने से मना हो जाता है।

बहरहाल, हमारी सरकार को चाहिए कि इन तमाम कदमों को उठाने से पहले खान-पान की अच्छी आदतें स्कूल से ही शुरू कर दे और और जितनी जल्दी हो सके स्कूल का माहौल और नीतियों का माहौल सरकार कुछ इस तरह बनाए कि जिससे नॉन कम्युनिकेबल बीमारियों को उम्र और वक्त से पहले थामा जा सके।

 

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